Sunday, 26 February 2012

Shivastkam...

श्री शिव अष्टकम 
प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम् । 
भवद्भव्य भूतॆश्वरं भूतनाथं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 1 ॥
गलॆ रुण्डमालं तनौ सर्पजालं महाकाल कालं गणॆशादि पालम् । 
जटाजूट गङ्गॊत्तरङ्गै र्विशालं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 2॥
मुदामाकरं मण्डनं मण्डयन्तं महा मण्डलं भस्म भूषाधरं तम् ।
अनादिं ह्यपारं महा मॊहमारं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 3 ॥
वटाधॊ निवासं महाट्टाट्टहासं महापाप नाशं सदा सुप्रकाशम् ।
गिरीशं गणॆशं सुरॆशं महॆशं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 4 ॥
गिरीन्द्रात्मजा सङ्गृहीतार्धदॆहं गिरौ संस्थितं सर्वदापन्न गॆहम् ।
परब्रह्म ब्रह्मादिभिर्-वन्द्यमानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 5 ॥
कपालं त्रिशूलं कराभ्यां दधानं पदाम्भॊज नम्राय कामं ददानम् ।
बलीवर्धमानं सुराणां प्रधानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 6 ॥
शरच्चन्द्र गात्रं गणानन्दपात्रं त्रिनॆत्रं पवित्रं धनॆशस्य मित्रम् ।
अपर्णा कलत्रं सदा सच्चरित्रं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 7 ॥
हरं सर्पहारं चिता भूविहारं भवं वॆदसारं सदा निर्विकारं।
श्मशानॆ वसन्तं मनॊजं दहन्तं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 8 ॥
स्वयं यः प्रभातॆ नरश्शूल पाणॆ पठॆत् स्तॊत्ररत्नं त्विहप्राप्यरत्नम् ।
सुपुत्रं सुधान्यं सुमित्रं कलत्रं विचित्रैस्समाराध्य मॊक्षं प्रयाति ॥......................

Sunday, 12 February 2012

Maha Shivratri 20 Feb-2012


Maha Shivaratri Vrat Katha – महाशिवरात्रि की व्रत-कथा

Celebrate Maha Shivaratri on 20 Feb 2012
एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, ‘ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?’
उत्तर में शिवजी ने पार्वती को ‘शिवरात्रि’ के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- ‘एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।
शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।
अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।
पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।
एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।
कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’
शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।’
शिकारी हँसा और बोला, ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।’
उत्तर में मृगी ने फिर कहा, ‘जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।’
मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।
शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,’ हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।’
मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।’
उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।
देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।’

Wednesday, 1 February 2012

Shre Shiv Kavach..

शिवा कवचम
अस्य श्री शिवकवच स्तॊत्र महामन्त्रस्य ऋषभयॊगीश्वर ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः ।

श्रीसाम्बसदाशिवॊ दॆवता ।
ॐ बीजम् ।
नमः शक्तिः ।
शिवायॆति कीलकम् ।
मम साम्बसदाशिवप्रीत्यर्थॆ जपॆ विनियॊगः ॥
करन्यासः
ॐ सदाशिवाय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । नं गङ्गाधराय तर्जनीभ्यां नमः । मं मृत्युञ्जयाय मध्यमाभ्यां नमः ।
शिं शूलपाणयॆ अनामिकाभ्यां नमः । वां पिनाकपाणयॆ कनिष्ठिकाभ्यां नमः । यम् उमापतयॆ करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादि अङ्गन्यासः
ॐ सदाशिवाय हृदयाय नमः । नं गङ्गाधराय शिरसॆ स्वाहा । मं मृत्युञ्जयाय शिखायै वषट् ।
शिं शूलपाणयॆ कवचाय हुम् । वां पिनाकपाणयॆ नॆत्रत्रयाय वौषट् । यम् उमापतयॆ अस्त्राय फट् । भूर्भुवस्सुवरॊमिति दिग्बन्धः ॥
ध्यानम्
वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठ मरिन्दमम् ।
सहस्रकरमत्युग्रं वन्दॆ शम्भुम् उमापतिम् ॥

रुद्राक्षकङ्कणलसत्करदण्डयुग्मः पालान्तरालसितभस्मधृतत्रिपुण्ड्रः ।
पञ्चाक्षरं परिपठन् वरमन्त्रराजं ध्यायन् सदा पशुपतिं शरणं व्रजॆथाः ॥
अतः परं सर्वपुराणगुह्यं निःशॆषपापौघहरं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्वविपत्प्रमॊचनं वक्ष्यामि शैवम् कवचं हिताय तॆ ॥
पञ्चपूजा
लं पृथिव्यात्मनॆ गन्धं समर्पयामि ।
हम् आकाशात्मनॆ पुष्पैः पूजयामि ।

यं वाय्वात्मनॆ धूपम् आघ्रापयामि ।
रम् अग्न्यात्मनॆ दीपं दर्शयामि ।
वम् अमृतात्मनॆ अमृतं महानैवॆद्यं निवॆदयामि ।
सं सर्वात्मनॆ सर्वॊपचारपूजां समर्पयामि ॥
मन्त्रः
ऋषभ उवाच
नमस्कृत्य महादॆवं विश्वव्यापिनमीश्वरम् ।
वक्ष्यॆ शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥ 1 ॥
शुचौ दॆशॆ समासीनॊ यथावत्कल्पितासनः ।
जितॆन्द्रियॊ जितप्राणश्चिन्तयॆच्छिवमव्ययम् ॥ 2 ॥
हृत्पुण्डरीकान्तरसन्निविष्टं स्वतॆजसा व्याप्तनभॊ‌உवकाशम् ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममनन्तमाद्यं ध्यायॆत् परानन्दमयं महॆशम् ॥
ध्यानावधूताखिलकर्मबन्ध- श्चिरं चिदानन्द निमग्नचॆताः ।
षडक्षरन्यास समाहितात्मा शैवॆन कुर्यात्कवचॆन रक्षाम् ॥
मां पातु दॆवॊ‌உखिलदॆवतात्मा संसारकूपॆ पतितं गभीरॆ ।
तन्नाम दिव्यं परमन्त्रमूलं धुनॊतु मॆ सर्वमघं हृदिस्थम् ॥
सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्ति- र्ज्यॊतिर्मयानन्दघनश्चिदात्मा ।
अणॊरणियानुरुशक्तिरॆकः स ईश्वरः पातु भयादशॆषात् ॥
यॊ भूस्वरूपॆण बिभर्ति विश्वं पायात्स भूमॆर्गिरिशॊ‌உष्टमूर्तिः ।
यॊ‌உपां स्वरूपॆण नृणां करॊति सञ्जीवनं सॊ‌உवतु मां जलॆभ्यः ॥
कल्पावसानॆ भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यॊ नृत्यति भूरिलीलः ।
स कालरुद्रॊ‌உवतु मां दवाग्नॆः वात्यादिभीतॆरखिलाच्च तापात् ॥
प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासॊ विद्यावराभीति कुठारपाणिः ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनॆत्रः प्राच्यां स्थितॊ रक्षतु मामजस्रम् ॥
कुठारखॆटाङ्कुश शूलढक्का- कपालपाशाक्ष गुणान्दधानः ।
चतुर्मुखॊ नीलरुचिस्त्रिनॆत्रः पायादघॊरॊ दिशि दक्षिणस्याम् ॥
कुन्दॆन्दुशङ्खस्फटिकावभासॊ वॆदाक्षमाला वरदाभयाङ्कः ।
त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरुप्रभावः सद्यॊ‌உधिजातॊ‌உवतु मां प्रतीच्याम् ॥
वराक्षमालाभयटङ्कहस्तः सरॊजकिञ्जल्कसमानवर्णः ।
त्रिलॊचनश्चारुचतुर्मुखॊ मां पायादुदीच्यां दिशि वामदॆवः ॥
वॆदाभयॆष्टाङ्कुशटङ्कपाश- कपालढक्काक्षरशूलपाणिः ।
सितद्युतिः पञ्चमुखॊ‌உवतान्माम् ईशान ऊर्ध्वं परमप्रकाशः ॥
मूर्धानमव्यान्मम चन्द्रमौलिः भालं ममाव्यादथ भालनॆत्रः ।
नॆत्रॆ ममाव्याद्भगनॆत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथः ॥
पायाच्छ्रुती मॆ श्रुतिगीतकीर्तिः कपॊलमव्यात्सततं कपाली ।
वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रॊ जिह्वां सदा रक्षतु वॆदजिह्वः ॥
कण्ठं गिरीशॊ‌உवतु नीलकण्ठः पाणिद्वयं पातु पिनाकपाणिः ।
दॊर्मूलमव्यान्मम धर्मबाहुः वक्षःस्थलं दक्षमखान्तकॊ‌உव्यात् ॥
ममॊदरं पातु गिरीन्द्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्मदनान्तकारी ।
हॆरम्बतातॊ मम पातु नाभिं पायात्कटिं धूर्जटिरीश्वरॊ मॆ ॥
ऊरुद्वयं पातु कुबॆरमित्रॊ जानुद्वयं मॆ जगदीश्वरॊ‌உव्यात् ।
जङ्घायुगं पुङ्गवकॆतुरव्यात् पादौ ममाव्यात्सुरवन्द्यपादः ॥
महॆश्वरः पातु दिनादियामॆ मां मध्ययामॆ‌உवतु वामदॆवः ।
त्रिलॊचनः पातु तृतीययामॆ वृषध्वजः पातु दिनान्त्ययामॆ ॥
पायान्निशादौ शशिशॆखरॊ मां गङ्गाधरॊ रक्षतु मां निशीथॆ ।
गौरीपतिः पातु निशावसानॆ मृत्युञ्जयॊ रक्षतु सर्वकालम् ॥
अन्तःस्थितं रक्षतु शङ्करॊ मां स्थाणुः सदा पातु बहिःस्थितं माम् ।
तदन्तरॆ पातु पतिः पशूनां सदाशिवॊ रक्षतु मां समन्तात् ॥
तिष्ठन्तमव्याद् भुवनैकनाथः पायाद्व्रजन्तं प्रमथाधिनाथः ।
वॆदान्तवॆद्यॊ‌உवतु मां निषण्णं मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥
मार्गॆषु मां रक्षतु नीलकण्ठः शैलादिदुर्गॆषु पुरत्रयारिः ।
अरण्यवासादि महाप्रवासॆ पायान्मृगव्याध उदारशक्तिः ॥
कल्पान्तकालॊग्रपटुप्रकॊप- स्फुटाट्टहासॊच्चलिताण्डकॊशः ।
घॊरारिसॆनार्णव दुर्निवार- महाभयाद्रक्षतु वीरभद्रः ॥
पत्त्यश्वमातङ्गरथावरूथिनी- सहस्रलक्षायुत कॊटिभीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां छिन्द्यान्मृडॊ घॊरकुठार धारया ॥
निहन्तु दस्यून्प्रलयानलार्चिः ज्वलत्त्रिशूलं त्रिपुरान्तकस्य । शार्दूलसिंहर्क्षवृकादिहिंस्रान् सन्त्रासयत्वीशधनुः पिनाकः ॥
दुः स्वप्न दुः शकुन दुर्गति दौर्मनस्य- दुर्भिक्ष दुर्व्यसन दुःसह दुर्यशांसि । उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रहार्तिं व्याधींश्च नाशयतु मॆ जगतामधीशः ॥
ॐ नमॊ भगवतॆ सदाशिवाय
सकलतत्वात्मकाय सर्वमन्त्रस्वरूपाय सर्वयन्त्राधिष्ठिताय सर्वतन्त्रस्वरूपाय सर्वतत्वविदूराय ब्रह्मरुद्रावतारिणॆ नीलकण्ठाय पार्वतीमनॊहरप्रियाय सॊमसूर्याग्निलॊचनाय भस्मॊद्धूलितविग्रहाय महामणि मुकुटधारणाय माणिक्यभूषणाय सृष्टिस्थितिप्रलयकाल- रौद्रावताराय दक्षाध्वरध्वंसकाय महाकालभॆदनाय मूलधारैकनिलयाय तत्वातीताय गङ्गाधराय सर्वदॆवादिदॆवाय षडाश्रयाय वॆदान्तसाराय त्रिवर्गसाधनाय अनन्तकॊटिब्रह्माण्डनायकाय अनन्त वासुकि तक्षक- कर्कॊटक शङ्ख कुलिक- पद्म महापद्मॆति- अष्टमहानागकुलभूषणाय प्रणवस्वरूपाय चिदाकाशाय आकाश दिक् स्वरूपाय ग्रहनक्षत्रमालिनॆ सकलाय कलङ्करहिताय सकललॊकैककर्त्रॆ सकललॊकैकभर्त्रॆ सकललॊकैकसंहर्त्रॆ सकललॊकैकगुरवॆ सकललॊकैकसाक्षिणॆ सकलनिगमगुह्याय सकलवॆदान्तपारगाय सकललॊकैकवरप्रदाय सकललॊकैकशङ्कराय सकलदुरितार्तिभञ्जनाय सकलजगदभयङ्कराय शशाङ्कशॆखराय शाश्वतनिजावासाय निराकाराय निराभासाय निरामयाय निर्मलाय निर्मदाय निश्चिन्ताय निरहङ्काराय निरङ्कुशाय निष्कलङ्काय निर्गुणाय निष्कामाय निरूपप्लवाय निरुपद्रवाय निरवद्याय निरन्तराय निष्कारणाय निरातङ्काय निष्प्रपञ्चाय निस्सङ्गाय निर्द्वन्द्वाय निराधाराय नीरागाय निष्क्रॊधाय निर्लॊपाय निष्पापाय निर्भयाय निर्विकल्पाय निर्भॆदाय निष्क्रियाय निस्तुलाय निःसंशयाय निरञ्जनाय निरुपमविभवाय नित्यशुद्धबुद्धमुक्तपरिपूर्ण- सच्चिदानन्दाद्वयाय परमशान्तस्वरूपाय परमशान्तप्रकाशाय तॆजॊरूपाय तॆजॊमयाय तॆजॊ‌உधिपतयॆ जय जय रुद्र महारुद्र महारौद्र भद्रावतार महाभैरव कालभैरव कल्पान्तभैरव कपालमालाधर खट्वाङ्ग चर्मखड्गधर पाशाङ्कुश- डमरूशूल चापबाणगदाशक्तिभिन्दिपाल- तॊमर मुसल मुद्गर पाश परिघ- भुशुण्डी शतघ्नी चक्राद्यायुधभीषणाकार- सहस्रमुखदंष्ट्राकरालवदन विकटाट्टहास विस्फारित ब्रह्माण्डमण्डल नागॆन्द्रकुण्डल नागॆन्द्रहार नागॆन्द्रवलय नागॆन्द्रचर्मधर नागॆन्द्रनिकॆतन मृत्युञ्जय त्र्यम्बक त्रिपुरान्तक विश्वरूप विरूपाक्ष विश्वॆश्वर वृषभवाहन विषविभूषण विश्वतॊमुख सर्वतॊमुख मां रक्ष रक्ष ज्वलज्वल प्रज्वल प्रज्वल महामृत्युभयं शमय शमय अपमृत्युभयं नाशय नाशय रॊगभयम् उत्सादयॊत्सादय विषसर्पभयं शमय शमय चॊरान् मारय मारय मम शत्रून् उच्चाटयॊच्चाटय त्रिशूलॆन विदारय विदारय कुठारॆण भिन्धि भिन्धि खड्गॆन छिन्द्दि छिन्द्दि खट्वाङ्गॆन विपॊधय विपॊधय मुसलॆन निष्पॆषय निष्पॆषय बाणैः सन्ताडय सन्ताडय यक्ष रक्षांसि भीषय भीषय अशॆष भूतान् विद्रावय विद्रावय कूष्माण्डभूतवॆतालमारीगण- ब्रह्मराक्षसगणान् सन्त्रासय सन्त्रासय मम अभयं कुरु कुरु मम पापं शॊधय शॊधय वित्रस्तं माम् आश्वासय आश्वासय नरकमहाभयान् माम् उद्धर उद्धर अमृतकटाक्षवीक्षणॆन मां- आलॊकय आलॊकय सञ्जीवय सञ्जीवय क्षुत्तृष्णार्तं माम् आप्यायय आप्यायय दुःखातुरं माम् आनन्दय आनन्दय शिवकवचॆन माम् आच्छादय आच्छादय
हर हर मृत्युञ्जय त्र्यम्बक सदाशिव परमशिव नमस्तॆ नमस्तॆ नमः ॥
पूर्ववत् – हृदयादि न्यासः ।
पञ्चपूजा ॥
भूर्भुवस्सुवरॊमिति दिग्विमॊकः ॥
फलश्रुतिः
ऋषभ उवाच इत्यॆतत्परमं शैवं कवचं व्याहृतं मया ।
सर्व बाधा प्रशमनं रहस्यं सर्व दॆहिनाम् ॥
यः सदा धारयॆन्मर्त्यः शैवं कवचमुत्तमम् ।
न तस्य जायतॆ कापि भयं शम्भॊरनुग्रहात् ॥
क्षीणायुः प्राप्तमृत्युर्वा महारॊगहतॊ‌உपि वा ।
सद्यः सुखमवाप्नॊति दीर्घमायुश्च विन्दति ॥
सर्वदारिद्रयशमनं सौमाङ्गल्यविवर्धनम् ।
यॊ धत्तॆ कवचं शैवं स दॆवैरपि पूज्यतॆ ॥
महापातकसङ्घातैर्मुच्यतॆ चॊपपातकैः ।
दॆहान्तॆ मुक्तिमाप्नॊति शिववर्मानुभावतः ॥
त्वमपि श्रद्दया वत्स शैवं कवचमुत्तमम् ।
धारयस्व मया दत्तं सद्यः श्रॆयॊ ह्यवाप्स्यसि ॥
श्रीसूत उवाच
इत्युक्त्वा ऋषभॊ यॊगी तस्मै पार्थिव सूनवॆ ।
ददौ शङ्खं महारावं खड्गं च अरिनिषूदनम् ॥
पुनश्च भस्म संमन्त्र्य तदङ्गं परितॊ‌உस्पृशत् ।
गजानां षट्सहस्रस्य त्रिगुणस्य बलं ददौ ॥
भस्मप्रभावात् सम्प्राप्तबलैश्वर्य धृति स्मृतिः ।
स राजपुत्रः शुशुभॆ शरदर्क इव श्रिया ॥
तमाह प्राञ्जलिं भूयः स यॊगी नृपनन्दनम् ।
ऎष खड्गॊ मया दत्तस्तपॊमन्त्रानुभावतः ॥
शितधारमिमं खड्गं यस्मै दर्शयसॆ स्फुटम् ।
स सद्यॊ म्रियतॆ शत्रुः साक्षान्मृत्युरपि स्वयम् ॥
अस्य शङ्खस्य निर्ह्रादं यॆ शृण्वन्ति तवाहिताः ।
तॆ मूर्च्छिताः पतिष्यन्ति न्यस्तशस्त्रा विचॆतनाः ॥
खड्गशङ्खाविमौ दिव्यौ परसैन्यविनाशकौ ।
आत्मसैन्यस्वपक्षाणां शौर्यतॆजॊविवर्धनौ ॥
ऎतयॊश्च प्रभावॆन शैवॆन कवचॆन च ।
द्विषट्सहस्र नागानां बलॆन महतापि च ॥
भस्मधारण सामर्थ्याच्छत्रुसैन्यं विजॆष्यसॆ ।
प्राप्य सिंहासनं पित्र्यं गॊप्ता‌உसि पृथिवीमिमाम् ॥
इति भद्रायुषं सम्यगनुशास्य समातृकम् ।
ताभ्यां सम्पूजितः सॊ‌உथ यॊगी स्वैरगतिर्ययौ ॥
॥ इति श्रीस्कान्दमहापुराणॆ ब्रह्मॊत्तरखण्डॆ शिवकवच प्रभाव वर्णनं नाम द्वादशॊ‌உध्यायः सम्पूर्णः ॥

Shree Shiv Kavacham

शिवा कवचम
अस्य श्री शिवकवच स्तॊत्र महामन्त्रस्य ऋषभयॊगीश्वर ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः ।

श्रीसाम्बसदाशिवॊ दॆवता ।
ॐ बीजम् ।
नमः शक्तिः ।
शिवायॆति कीलकम् ।
मम साम्बसदाशिवप्रीत्यर्थॆ जपॆ विनियॊगः ॥
करन्यासः
ॐ सदाशिवाय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । नं गङ्गाधराय तर्जनीभ्यां नमः । मं मृत्युञ्जयाय मध्यमाभ्यां नमः ।
शिं शूलपाणयॆ अनामिकाभ्यां नमः । वां पिनाकपाणयॆ कनिष्ठिकाभ्यां नमः । यम् उमापतयॆ करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादि अङ्गन्यासः
ॐ सदाशिवाय हृदयाय नमः । नं गङ्गाधराय शिरसॆ स्वाहा । मं मृत्युञ्जयाय शिखायै वषट् ।
शिं शूलपाणयॆ कवचाय हुम् । वां पिनाकपाणयॆ नॆत्रत्रयाय वौषट् । यम् उमापतयॆ अस्त्राय फट् । भूर्भुवस्सुवरॊमिति दिग्बन्धः ॥
ध्यानम्
वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठ मरिन्दमम् ।
सहस्रकरमत्युग्रं वन्दॆ शम्भुम् उमापतिम् ॥

रुद्राक्षकङ्कणलसत्करदण्डयुग्मः पालान्तरालसितभस्मधृतत्रिपुण्ड्रः ।
पञ्चाक्षरं परिपठन् वरमन्त्रराजं ध्यायन् सदा पशुपतिं शरणं व्रजॆथाः ॥
अतः परं सर्वपुराणगुह्यं निःशॆषपापौघहरं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्वविपत्प्रमॊचनं वक्ष्यामि शैवम् कवचं हिताय तॆ ॥
पञ्चपूजा
लं पृथिव्यात्मनॆ गन्धं समर्पयामि ।
हम् आकाशात्मनॆ पुष्पैः पूजयामि ।

यं वाय्वात्मनॆ धूपम् आघ्रापयामि ।
रम् अग्न्यात्मनॆ दीपं दर्शयामि ।
वम् अमृतात्मनॆ अमृतं महानैवॆद्यं निवॆदयामि ।
सं सर्वात्मनॆ सर्वॊपचारपूजां समर्पयामि ॥
मन्त्रः
ऋषभ उवाच
नमस्कृत्य महादॆवं विश्वव्यापिनमीश्वरम् ।
वक्ष्यॆ शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥ 1 ॥
शुचौ दॆशॆ समासीनॊ यथावत्कल्पितासनः ।
जितॆन्द्रियॊ जितप्राणश्चिन्तयॆच्छिवमव्ययम् ॥ 2 ॥
हृत्पुण्डरीकान्तरसन्निविष्टं स्वतॆजसा व्याप्तनभॊ‌உवकाशम् ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममनन्तमाद्यं ध्यायॆत् परानन्दमयं महॆशम् ॥
ध्यानावधूताखिलकर्मबन्ध- श्चिरं चिदानन्द निमग्नचॆताः ।
षडक्षरन्यास समाहितात्मा शैवॆन कुर्यात्कवचॆन रक्षाम् ॥
मां पातु दॆवॊ‌உखिलदॆवतात्मा संसारकूपॆ पतितं गभीरॆ ।
तन्नाम दिव्यं परमन्त्रमूलं धुनॊतु मॆ सर्वमघं हृदिस्थम् ॥
सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्ति- र्ज्यॊतिर्मयानन्दघनश्चिदात्मा ।
अणॊरणियानुरुशक्तिरॆकः स ईश्वरः पातु भयादशॆषात् ॥
यॊ भूस्वरूपॆण बिभर्ति विश्वं पायात्स भूमॆर्गिरिशॊ‌உष्टमूर्तिः ।
यॊ‌உपां स्वरूपॆण नृणां करॊति सञ्जीवनं सॊ‌உवतु मां जलॆभ्यः ॥
कल्पावसानॆ भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यॊ नृत्यति भूरिलीलः ।
स कालरुद्रॊ‌உवतु मां दवाग्नॆः वात्यादिभीतॆरखिलाच्च तापात् ॥
प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासॊ विद्यावराभीति कुठारपाणिः ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनॆत्रः प्राच्यां स्थितॊ रक्षतु मामजस्रम् ॥
कुठारखॆटाङ्कुश शूलढक्का- कपालपाशाक्ष गुणान्दधानः ।
चतुर्मुखॊ नीलरुचिस्त्रिनॆत्रः पायादघॊरॊ दिशि दक्षिणस्याम् ॥
कुन्दॆन्दुशङ्खस्फटिकावभासॊ वॆदाक्षमाला वरदाभयाङ्कः ।
त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरुप्रभावः सद्यॊ‌உधिजातॊ‌உवतु मां प्रतीच्याम् ॥
वराक्षमालाभयटङ्कहस्तः सरॊजकिञ्जल्कसमानवर्णः ।
त्रिलॊचनश्चारुचतुर्मुखॊ मां पायादुदीच्यां दिशि वामदॆवः ॥
वॆदाभयॆष्टाङ्कुशटङ्कपाश- कपालढक्काक्षरशूलपाणिः ।
सितद्युतिः पञ्चमुखॊ‌உवतान्माम् ईशान ऊर्ध्वं परमप्रकाशः ॥
मूर्धानमव्यान्मम चन्द्रमौलिः भालं ममाव्यादथ भालनॆत्रः ।
नॆत्रॆ ममाव्याद्भगनॆत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथः ॥
पायाच्छ्रुती मॆ श्रुतिगीतकीर्तिः कपॊलमव्यात्सततं कपाली ।
वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रॊ जिह्वां सदा रक्षतु वॆदजिह्वः ॥
कण्ठं गिरीशॊ‌உवतु नीलकण्ठः पाणिद्वयं पातु पिनाकपाणिः ।
दॊर्मूलमव्यान्मम धर्मबाहुः वक्षःस्थलं दक्षमखान्तकॊ‌உव्यात् ॥
ममॊदरं पातु गिरीन्द्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्मदनान्तकारी ।
हॆरम्बतातॊ मम पातु नाभिं पायात्कटिं धूर्जटिरीश्वरॊ मॆ ॥
ऊरुद्वयं पातु कुबॆरमित्रॊ जानुद्वयं मॆ जगदीश्वरॊ‌உव्यात् ।
जङ्घायुगं पुङ्गवकॆतुरव्यात् पादौ ममाव्यात्सुरवन्द्यपादः ॥
महॆश्वरः पातु दिनादियामॆ मां मध्ययामॆ‌உवतु वामदॆवः ।
त्रिलॊचनः पातु तृतीययामॆ वृषध्वजः पातु दिनान्त्ययामॆ ॥
पायान्निशादौ शशिशॆखरॊ मां गङ्गाधरॊ रक्षतु मां निशीथॆ ।
गौरीपतिः पातु निशावसानॆ मृत्युञ्जयॊ रक्षतु सर्वकालम् ॥
अन्तःस्थितं रक्षतु शङ्करॊ मां स्थाणुः सदा पातु बहिःस्थितं माम् ।
तदन्तरॆ पातु पतिः पशूनां सदाशिवॊ रक्षतु मां समन्तात् ॥
तिष्ठन्तमव्याद् भुवनैकनाथः पायाद्व्रजन्तं प्रमथाधिनाथः ।
वॆदान्तवॆद्यॊ‌உवतु मां निषण्णं मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥
मार्गॆषु मां रक्षतु नीलकण्ठः शैलादिदुर्गॆषु पुरत्रयारिः ।
अरण्यवासादि महाप्रवासॆ पायान्मृगव्याध उदारशक्तिः ॥
कल्पान्तकालॊग्रपटुप्रकॊप- स्फुटाट्टहासॊच्चलिताण्डकॊशः ।
घॊरारिसॆनार्णव दुर्निवार- महाभयाद्रक्षतु वीरभद्रः ॥
पत्त्यश्वमातङ्गरथावरूथिनी- सहस्रलक्षायुत कॊटिभीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां छिन्द्यान्मृडॊ घॊरकुठार धारया ॥
निहन्तु दस्यून्प्रलयानलार्चिः ज्वलत्त्रिशूलं त्रिपुरान्तकस्य । शार्दूलसिंहर्क्षवृकादिहिंस्रान् सन्त्रासयत्वीशधनुः पिनाकः ॥
दुः स्वप्न दुः शकुन दुर्गति दौर्मनस्य- दुर्भिक्ष दुर्व्यसन दुःसह दुर्यशांसि । उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रहार्तिं व्याधींश्च नाशयतु मॆ जगतामधीशः ॥
ॐ नमॊ भगवतॆ सदाशिवाय
सकलतत्वात्मकाय सर्वमन्त्रस्वरूपाय सर्वयन्त्राधिष्ठिताय सर्वतन्त्रस्वरूपाय सर्वतत्वविदूराय ब्रह्मरुद्रावतारिणॆ नीलकण्ठाय पार्वतीमनॊहरप्रियाय सॊमसूर्याग्निलॊचनाय भस्मॊद्धूलितविग्रहाय महामणि मुकुटधारणाय माणिक्यभूषणाय सृष्टिस्थितिप्रलयकाल- रौद्रावताराय दक्षाध्वरध्वंसकाय महाकालभॆदनाय मूलधारैकनिलयाय तत्वातीताय गङ्गाधराय सर्वदॆवादिदॆवाय षडाश्रयाय वॆदान्तसाराय त्रिवर्गसाधनाय अनन्तकॊटिब्रह्माण्डनायकाय अनन्त वासुकि तक्षक- कर्कॊटक शङ्ख कुलिक- पद्म महापद्मॆति- अष्टमहानागकुलभूषणाय प्रणवस्वरूपाय चिदाकाशाय आकाश दिक् स्वरूपाय ग्रहनक्षत्रमालिनॆ सकलाय कलङ्करहिताय सकललॊकैककर्त्रॆ सकललॊकैकभर्त्रॆ सकललॊकैकसंहर्त्रॆ सकललॊकैकगुरवॆ सकललॊकैकसाक्षिणॆ सकलनिगमगुह्याय सकलवॆदान्तपारगाय सकललॊकैकवरप्रदाय सकललॊकैकशङ्कराय सकलदुरितार्तिभञ्जनाय सकलजगदभयङ्कराय शशाङ्कशॆखराय शाश्वतनिजावासाय निराकाराय निराभासाय निरामयाय निर्मलाय निर्मदाय निश्चिन्ताय निरहङ्काराय निरङ्कुशाय निष्कलङ्काय निर्गुणाय निष्कामाय निरूपप्लवाय निरुपद्रवाय निरवद्याय निरन्तराय निष्कारणाय निरातङ्काय निष्प्रपञ्चाय निस्सङ्गाय निर्द्वन्द्वाय निराधाराय नीरागाय निष्क्रॊधाय निर्लॊपाय निष्पापाय निर्भयाय निर्विकल्पाय निर्भॆदाय निष्क्रियाय निस्तुलाय निःसंशयाय निरञ्जनाय निरुपमविभवाय नित्यशुद्धबुद्धमुक्तपरिपूर्ण- सच्चिदानन्दाद्वयाय परमशान्तस्वरूपाय परमशान्तप्रकाशाय तॆजॊरूपाय तॆजॊमयाय तॆजॊ‌உधिपतयॆ जय जय रुद्र महारुद्र महारौद्र भद्रावतार महाभैरव कालभैरव कल्पान्तभैरव कपालमालाधर खट्वाङ्ग चर्मखड्गधर पाशाङ्कुश- डमरूशूल चापबाणगदाशक्तिभिन्दिपाल- तॊमर मुसल मुद्गर पाश परिघ- भुशुण्डी शतघ्नी चक्राद्यायुधभीषणाकार- सहस्रमुखदंष्ट्राकरालवदन विकटाट्टहास विस्फारित ब्रह्माण्डमण्डल नागॆन्द्रकुण्डल नागॆन्द्रहार नागॆन्द्रवलय नागॆन्द्रचर्मधर नागॆन्द्रनिकॆतन मृत्युञ्जय त्र्यम्बक त्रिपुरान्तक विश्वरूप विरूपाक्ष विश्वॆश्वर वृषभवाहन विषविभूषण विश्वतॊमुख सर्वतॊमुख मां रक्ष रक्ष ज्वलज्वल प्रज्वल प्रज्वल महामृत्युभयं शमय शमय अपमृत्युभयं नाशय नाशय रॊगभयम् उत्सादयॊत्सादय विषसर्पभयं शमय शमय चॊरान् मारय मारय मम शत्रून् उच्चाटयॊच्चाटय त्रिशूलॆन विदारय विदारय कुठारॆण भिन्धि भिन्धि खड्गॆन छिन्द्दि छिन्द्दि खट्वाङ्गॆन विपॊधय विपॊधय मुसलॆन निष्पॆषय निष्पॆषय बाणैः सन्ताडय सन्ताडय यक्ष रक्षांसि भीषय भीषय अशॆष भूतान् विद्रावय विद्रावय कूष्माण्डभूतवॆतालमारीगण- ब्रह्मराक्षसगणान् सन्त्रासय सन्त्रासय मम अभयं कुरु कुरु मम पापं शॊधय शॊधय वित्रस्तं माम् आश्वासय आश्वासय नरकमहाभयान् माम् उद्धर उद्धर अमृतकटाक्षवीक्षणॆन मां- आलॊकय आलॊकय सञ्जीवय सञ्जीवय क्षुत्तृष्णार्तं माम् आप्यायय आप्यायय दुःखातुरं माम् आनन्दय आनन्दय शिवकवचॆन माम् आच्छादय आच्छादय
हर हर मृत्युञ्जय त्र्यम्बक सदाशिव परमशिव नमस्तॆ नमस्तॆ नमः ॥
पूर्ववत् – हृदयादि न्यासः ।
पञ्चपूजा ॥
भूर्भुवस्सुवरॊमिति दिग्विमॊकः ॥
फलश्रुतिः
ऋषभ उवाच इत्यॆतत्परमं शैवं कवचं व्याहृतं मया ।
सर्व बाधा प्रशमनं रहस्यं सर्व दॆहिनाम् ॥
यः सदा धारयॆन्मर्त्यः शैवं कवचमुत्तमम् ।
न तस्य जायतॆ कापि भयं शम्भॊरनुग्रहात् ॥
क्षीणायुः प्राप्तमृत्युर्वा महारॊगहतॊ‌உपि वा ।
सद्यः सुखमवाप्नॊति दीर्घमायुश्च विन्दति ॥
सर्वदारिद्रयशमनं सौमाङ्गल्यविवर्धनम् ।
यॊ धत्तॆ कवचं शैवं स दॆवैरपि पूज्यतॆ ॥
महापातकसङ्घातैर्मुच्यतॆ चॊपपातकैः ।
दॆहान्तॆ मुक्तिमाप्नॊति शिववर्मानुभावतः ॥
त्वमपि श्रद्दया वत्स शैवं कवचमुत्तमम् ।
धारयस्व मया दत्तं सद्यः श्रॆयॊ ह्यवाप्स्यसि ॥
श्रीसूत उवाच
इत्युक्त्वा ऋषभॊ यॊगी तस्मै पार्थिव सूनवॆ ।
ददौ शङ्खं महारावं खड्गं च अरिनिषूदनम् ॥
पुनश्च भस्म संमन्त्र्य तदङ्गं परितॊ‌உस्पृशत् ।
गजानां षट्सहस्रस्य त्रिगुणस्य बलं ददौ ॥
भस्मप्रभावात् सम्प्राप्तबलैश्वर्य धृति स्मृतिः ।
स राजपुत्रः शुशुभॆ शरदर्क इव श्रिया ॥
तमाह प्राञ्जलिं भूयः स यॊगी नृपनन्दनम् ।
ऎष खड्गॊ मया दत्तस्तपॊमन्त्रानुभावतः ॥
शितधारमिमं खड्गं यस्मै दर्शयसॆ स्फुटम् ।
स सद्यॊ म्रियतॆ शत्रुः साक्षान्मृत्युरपि स्वयम् ॥
अस्य शङ्खस्य निर्ह्रादं यॆ शृण्वन्ति तवाहिताः ।
तॆ मूर्च्छिताः पतिष्यन्ति न्यस्तशस्त्रा विचॆतनाः ॥
खड्गशङ्खाविमौ दिव्यौ परसैन्यविनाशकौ ।
आत्मसैन्यस्वपक्षाणां शौर्यतॆजॊविवर्धनौ ॥
ऎतयॊश्च प्रभावॆन शैवॆन कवचॆन च ।
द्विषट्सहस्र नागानां बलॆन महतापि च ॥
भस्मधारण सामर्थ्याच्छत्रुसैन्यं विजॆष्यसॆ ।
प्राप्य सिंहासनं पित्र्यं गॊप्ता‌உसि पृथिवीमिमाम् ॥
इति भद्रायुषं सम्यगनुशास्य समातृकम् ।
ताभ्यां सम्पूजितः सॊ‌உथ यॊगी स्वैरगतिर्ययौ ॥
॥ इति श्रीस्कान्दमहापुराणॆ ब्रह्मॊत्तरखण्डॆ शिवकवच प्रभाव वर्णनं नाम द्वादशॊ‌உध्यायः सम्पूर्णः ॥