Friday, 20 April 2012

Jai Ardhnarishwar

सृष्टि के निर्माण के हेतु शिव ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया| शिव स्वयं पुरूष लिंग के द्योतक हैं तथा उनकी शक्ति स्त्री लिंग की द्योतक| पुरुष (शिव) एवं स्त्री (शक्ति) का एका होने के कारण शिव नर भी हैं और नारी भी, अतः वे अर्धनरनारीश्वर हैं| जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने पाया कि उनकी रचनायं अपने जीवनोपरांत नष्ट हो जायंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन करना होगा। गहन विचार के उपरांत भी वो किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाय। तब अपने समस्या के सामाधान के हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया। ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए। ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा। अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजन्नशिल प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदा की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं स्त्री के सामान महत्व का भी उपदेश दिया। इसके बाद अर्धनारीश्वर भगवान अंतर्धयान हो गए। शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर है जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध। ======================= शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। ११वीं शताब्दी की चोल मूर्ति शिव कारण हैं; शक्ति कारक। शिव संकल्प करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी। शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुशुप्तावस्था। शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय। शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति सरस्वती। शिव विष्णु हैं; शक्त्ति लक्ष्मी। शिव महादेव हैं; शक्ति पार्वती। शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली। शिव सागर के जल सामन हैं। शक्ति सागर की लहर हैं। शिव परम चैतन्य हैं, कर्ता तो शक्ति ही है| ============================ स्त्री की जो मूर्ति सामने आती है, वह है- प्रेम, स्नेह व मातृत्व के साथ ही शक्तिसंपन्न स्त्री की मूर्ति। यह दिन यह गिनने का भी है कि आखिर हमने मील के कितने पत्थर पार कर लिए। सचमुच गौरव और आत्मविश्वास से कलेजा तर हो जाता है उन पाई हुई पायदानों के लिए और उन आत्मबल से भरी स्त्रियों के लिए जो सचमुच गजब की हैं। इक्कीसवीं सदी की स्त्री ने स्वयं की शक्ति को पहचान लिया है। उसने काफी हद तक अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख लिया है। आज स्त्रियों ने सिद्ध किया है कि वे एक-दूसरे की दुश्मन नहीं, सहयोगी हैं। स्त्री सशक्त है व उसकी शक्ति की अभिव्यक्ति इस प्रकार देखने को मिल रही है....... महिलाओं के लिए यह भी जरूरी होगा कि वे दृढ़ निश्चय करें कि वे उनके बच्चों में नैतिक मूल्यों पर ध्यान देंगी और आगे बढ़ने के उदाहरण कायम करेंगी। सबसे युवा या युवा भारत पारिवारिक देखभाल की उपज है और यह बताती है कि उन्हें स्कूली स्तर पर कैसी शिक्षा मिलती है। परवरिश और स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता इस वर्ष तय करेगी कि उनमें सही गुणों का बीजारोपण किया जाता है या नहीं। इस स्तर पर ज्यादातर शिक्षक महिलाएं होती हैं। इस वर्ष महिलाएं अपनी क्षमताओं को साकार करने पर भी ध्यान दे सकती हैं और इसके लिए उन्हें उद्यमी बनना होगा। , घरों मे माँ के पास इतना समय ही नहीं होता की वे बच्चो को नैतिक मूल्य सिखा सके.वे केवल आर्थिक या सामाजिक पक्षों पर ज्यादा ध्यान देती है.हमारा पूरा परिवार सिस्टम टूट चूका है.इसे आप मज़बूरी कहे या परिवार विघटन या नारी का घर से बाहर जाना.ये आप तय करे.मै एक प्रिंसिपल होने के कारण बहुत माओ से बात करता हू किन्तु वो मानने को तयार नहीं होती की बच्चो को बिगाडने सुधारने मे सबसे बड़ा हाथ माँ का होता है. पति की सच्ची दोस्त आज की नारी की सफलता इसी से स्वयंसिद्ध है कि वह सही अर्थों में सखी-सहधर्मिणी बन चुकी है। वह पति की हर परेशानी बाँटने में सक्षम है। वह केवल पत्नी बन उसके द्वारा प्रदत्त सुख-सुविधाओं का लाभ नहीं उठाती बल्कि हर सुख-सुविधा जुटाने में बराबर की जिम्मेदारी लेती है, संघर्ष करती है। सफल माँ शिक्षित व कामकाजी होने के साथ ही वह बच्चों के प्रति अधिक जागरूक व संवेदनशील हो गई है। हर क्षेत्र का ज्ञान होने से वह बच्चों की परवरिश अच्छे तरीके से करती है व उनके निर्णयों में भागीदार बनती है। बच्चे भी अपनी माँ की उपलब्धियों पर गर्व करते हैं। मायके-ससुराल के बीच सेतु सही अर्थों में आज नारी मायके व ससुराल के दो परिवारों के बीच सेतु बन दोनों परिवारों की गरिमा बनाए रखना सीख चुकी है। ससुराल के दायित्वों को निभाते हुए भी वह मायके के कर्तव्यों को भी सर्वोपरि मान पूर्ण करती है ...सासों ने बहुओं को ममता-स्नेह देना प्रारंभ किया है तो बहुएँ भी सास को मानती हैं। अब सास-बहू सीरियलों में ज्यादा लड़ती हैं, असल में कम। इस तरह के सुखद परिवर्तन स्त्री शक्ति की सकारात्मक अभिव्यक्ति हैं।,, अन्तरंग संबंधो की स्थापना केवल संतानोत्पत्ति के लिए ही करना चाइये , यह धर्मसम्मत बात है , अब यदि लोग इंसानियत छोड़ दे तो क्या करे , ब्रम्हचर्य मैं बड़ी शक्ति है , कई गृहस्त लोग बहुत पहुचे हुए हें , श्री राम शर्मा आचार्य , पंडित गोपीनाथ कविराज . रामकृष्ण परमहंस , निगमानंद परमहंश और भी कई अन्य ओग है इन्होने जाना सच्च्जई को संकल्प किया और आल भगवन बन गय ==================== जय मातृशक्ति! .. स्त्री भावना प्रधान है और पुरुष विचार प्रधान| पर यह सत्य है कि जो भी सम्बन्ध सिर्फ चेहरे के कोण और त्वचा के रंग को देखकर या किसी भी तरह कि अपेक्षा पर आधारित होते हैं वे विफल होते हैं| स्त्री के लिए यदि पुरुष परमेश्वर है तो पुरुष के लिए स्त्री भी अन्नपूर्णा| जहाँ स्त्री-पुरुष एक दूसरे को परमात्मा की तरह प्रेम करते हों व एक दूसरे का प्रेम परमात्मा की तरह स्वीकार करते हों वही सम्बन्ध सफल होता है| ऐसी ही महिलाओं के गर्भ में महान आत्माओं का जन्म होता है| जब पुरुष का शुक्राणु और स्त्री का अंडाणु मिलते है तब सुक्ष्म जगत में एक विस्फोट सा होता है और जैसी भी भावस्थिति उनकी (विशेष रूप से स्त्री की) होती है वैसी ही आत्मा गर्भस्थ हो जाती है| स्त्री चाहे तो महापुरुषों को जन्म दे सकती है और अनजाने में कचरा मनुष्यता को भी| स्त्री पुरुष संबंधों में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है उनके स्वभाव व संस्कारों की| स्त्री चाहे तो परिवार का जीवन स्वर्ग या नर्क बना सकती है| धन्यवाद! आप मेरी बेटी ही हो अतः मेरी ओर से बहुत बहुत प्यार| मेरे इस लेख को सुरक्षित रखना| जय मातृशक्ति! मेरे उपरोक्त कथन में एक और पंक्ति जोडना चाहता हूँ ---- "स्त्री चाहे तो स्वयं को भोग्या बना सकती है और चाहे तो पूज्या|" प्रकृति ने ही स्त्री और पुरुष में जो मुलभूत भेद रखे है उसका छेदन तो नं नारी कर सक्ती है नं पुरुष . "यत्र नार्यस्तु पूज्यते, तत्र रमन्ते देवता " ये हमारी संस्कृति है शिव भी शक्ति बिन अधुरे है ,और हमारे ज्ञानी मनीषी ऋषी यो में सिर्फ पुरुष ही नही थे ,गार्गी ,मदालसा ,अनुसया ,स्वयंप्रभा,,मीरा सावित्री ,द्रोपदी जैसी विदुशी नारीया हमारे धरती पर हुई और ज्ञानी ऋषी योंको भी इन महिलावोने शास्त्रार्थ में परास्त भी किया था और वैदिक काळ में भी इन महिला वो के ज्ञान का लोहा समाज ने माना था और यही परंपरा आज भी चल रही है =================================== मनुष्य जीवन की आधारभूता शक्ती स्त्री है,स्त्री ही अपने विभिन्न रुपों से ममता,प्यार,वात्सल्य आदि की वर्षा करती हुई मानव जीवन को गतिमान करती है। मनुष्य जीवन की आधारभूता शक्ती स्त्री है,स्त्री ही अपने विभिन्न रुपों से ममता,प्यार,वात्सल्य आदि की वर्षा करती हुई मानव जीवन को गतिमान करती है। =========================== प्राचीन काल के ऋषि-मुनि सब गृहस्थ होते थे| संन्यास आश्रम में प्रवेश ७५ वर्ष की आयु के पश्चात ही होता था| कुछ ही अपवाद थे जो जन्म से ही विरक्त होते थे| युवा सन्यासियों की परम्परा तो बहुत बाद में समय की तत्कालीन आवश्यकताओं के कारण हुई| प्राचीन काल के ऋषियों को महान संताने उत्पन्न करने की कला का ज्ञान था इसीलिये भारत में इतने महान आत्माओं ने जन्म लिया| गृहस्थाश्रम सब आश्रमों से श्रेष्ठ है क्योंकि अन्य सारे आश्रमों को आश्रय ग्रुहास्थाश्रम से ही मिलता है| अतः प्राचीन भारत की वर्णाश्रम परम्परा सर्वश्रेष्ठ थी| अगस्त्य ऋषि भी जन्म से ही विरक्त थे पर उनके पितृगणों ने उन्हें आदेश दिया विवाह करने का क्योंकि पितृगण श्राद्ध न होने से प्रेत योनी में थे| अगस्त्य ऋषि ने लोपामुद्रा से विवाह किया जो उस समय की सबसे अधिक विदुषी और तपस्वी कन्या थी| वेदों की अनेक ऋचाएं लोपामुद्रा ने अनावृत कीं| प्राचीन भारत में विवाह एक अनिवार्य संस्था थी, बहुत नगण्य अपवाद थे| एक सद्गृहस्थ का स्थान सबसे ऊपर है| वह सन्यासी से भी श्रेष्ठ है| ======================== Woman….. Artfully and delicately moulded, the creator's masterpiece; his perfect delight! His choice as man's mate; Much more than a mere missing rib! Woman... The epitome of beauty and glamour Adorned with dignity, full of strenght, splendour and vigour Man's mother, sister, friend, and soulmate Affectionately configured, warm and tender, Skilled in the crafts of home and hearth, diligent in homemaking, ordained to productivity! God's dream came true, you produced the seed that bruised the serpent's heel your mouth is filled with wisdom, faithful instructions emit from your tongue the weaker vessel you may be called yet you are the mother of all men! You are an ultimate being!!!!!!!!!!! ============================= स्त्री के कर्म, सफलता व स्थिति को हर परिवार में सम्मान मिले ....... आजादी सबको प्रिय है। लेकिन स्वतंत्र रहने के साथ स्वावलंबन भी जरूरी है। परिवार में स्त्री-पुरुष जब पति-पत्नी के रूप में होते हैं, तब स्वतंत्र तो हो जाते हैं, पर स्वावलंबन नहीं आ पाता। परमात्मा और प्रकृति ने स्त्रियों को मां बनने का अधिकार देकर उनकी विशेषता घोषित की है। इसलिए समाज में उनकी प्रतिष्ठा अधिक होनी चाहिए, लेकिन हो उल्टा गया। उनके गुण को उनकी मजबूरी बता दिया गया, जबकि प्रकृति ऐसा विश्वास पुरुष के प्रति व्यक्त नहीं कर पाई। परमात्मा ने तो पुरुष के शरीर में इतना सत्व भी नहीं रखा कि वह किसी नवजात को दूध का पोषण करा सके। पुरुषप्रधान समाज ने तो यह घोषणा कर दी कि स्त्री का शरीर गर्भ धारण के लिए बना है, इसलिए वह स्वतंत्र व स्वावलंबी नहीं हो सकती। ईश्वर ने जब स्त्री और पुरुष को बनाया तो दोनों के भीतर उनके लक्षण और गुण थोड़े-थोड़े डाल दिए। जैसे नेपोलियन जैसे योद्धा की शक्ल में स्त्रियों की झलक थी। परमात्मा ने सभी के भीतर स्त्री के भाव, लक्षण और गुण छोड़े हैं। इसलिए परिवारों में स्त्रियों द्वारा किए गए कर्म, सफलता और उनकी स्थिति को वही सम्मान मिलना चाहिए, जो पुरुष प्राप्त करना चाहता है। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि यदि मेरे ही हाथों से मेरे लोग मारे गए तो मेरी विजय का मूल्य क्या है? भगवान ने इसे समझाने के लिए गीता कह दी, लेकिन वे अर्जुन को समझाते हैं कि तुम एक स्थिति हो। सारी क्रियाओं के पीछे मैं खड़ा हूं। जिस दिन हमारे परिवारों में सही रूप में भक्ति उतरती है, हम स्त्री-पुरुष का भेद इसी भाव से मिटा सकते हैं। हम एक स्थिति हैं और परमात्मा ने एक-दूसरे की पूर्ति करते हुए हमें बनाया है। .. जिस आर्य संस्कृति में स्त्री के सम्बन्ध में इतनी आदर और सम्मान पूर्ण बातें कही हैं उस संस्कृति में स्त्री का अपमान कैसे हो सकता है? हमारी भारतीय संस्कृति आज भले ही पुरुष-प्रधान संस्कृति का रूप ले रही है, परन्तु इस संस्कृति के विकास में और श्रेष्ठता के शिखर पर पहुँचाने में नारी जाति का अवर्णनीय योगदान रहा है। उस उपकारी के प्रति यदि कोई अपमान करता है, तिरस्कार जनक शब्द लिखता है, कहता है तो वह उसकी कृतघ्नता ही मानी जायेगी। ===================== यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफलाः क्रियाः । जिस घर में स्त्रियों का सम्मान होता है, उन्हें आदर और स्नेह मिलता है, उस घर में देवता रमण करते हैं। वहाँ लक्ष्मी का निवास रहता है। और जहाँ स्त्री को सम्मान नहीं मिलता, वहाँ सभी क्रियाएँ, सभी प्रवृत्तियाँ व्यर्थ जाती हैं। मनुस्मृति में मनु महाराज स्वयं इस बात पर बार-बार बल देते हैं कि - जहाँ बहन, बेटी दुःख पाती हैं, जहाँ नारी आँसू बहाती हैं, वह कुल उस नारी आँसू रूपी नदी में बहकर नष्ट हो जाता है। नारी के दुःख भरे श्वास-आहें अग्नि की ज्वाला बनकर भरे-पूरे समृद्ध परिवार को भस्म कर देते हैं।

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