"शभ सुप्रभात"
ॐ श्री सद गुरुदेवाये नम:
ॐ गं गणपतये नम:
ग्रहों का अंग विन्यास
प्रश्न कल, गोचर अथवा जन्म समय में जब कोई गृह प्रतिकूल फलदाता होता है तो वह कालपुरुष के उसी अंग में अपने अशुभ फल के कारन पीड़ा पहुचाहता है
सूर्य का ....सर और मुख
चन्द्र का....हृदय और कंठ
मंगल का....पेट और पीठ
बुद्ध का...हाथों और पावो पर
गुरु का .........बस्ती par
शुक्र का..........गुप्त स्थान पर
शनि का........जन्घो पर
ॐ श्री सद गुरुदेवाये नम:
ॐ गं गणपतये नम:
ग्रहों के सम्बन्ध..
दो ग्रहों में परस्पर राशी परिवर्तन का योग हो- अर्थात 'क' गृह..ख गृह की राशी में बैठा हो ख गृह क गृह की राशी में बैठा हो -तो यह सम्बन्ध अति उत्तम सम्बन्ध होता है
जब दो गृह परस्पर एक-दुसरे को देख रहे हो तो यह सम्बन्ध बनता है -यह मध्यम सम्बध मन जाता है ...
दोनों ग्रहों में से एक गृह दुसरे गृह की राशी में बैठा हो और दोनों में से एक दुसरे गृह को देखता हो यह तीसरा सम्बन्ध मन जाता है
जब दोनों गृह एक ही राशी में बैठे हो तो एश चौथे प्रकार का सम्बन्ध होता है....
तब दो गृह एक-दुसरे से त्रिकोण भाव में (5th और 9th भाव में ) बैठे हो तो ये सम्बन्ध उत्तम सम्बन्ध मन जाता है ...मतलब कोई भी गृह जिस भाव में बैठा हो उस से पांचवे या नवे भाव में जोग्रह बैठा हो उसका सम्बन्ध त्रिकोण सम्बन्ध कहलाता है .....
ग्रहों की दृष्टि .....
जो प्रभावकारी दृष्टि हैं वे इस प्रकार हैं ...
प्रत्येक गृह अपने से सातवे भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है
गुरु जहां बैठा हो वहां से ५वी ७वी ९ वी दृष्टि से देखता है
शनि ३री ७वी १० वी दृष्टि से देखता है
मंगल ४थी ७वी और १० वी दृष्टि से देखता है
रहू और केतु की दृष्टि ३ री ७ वी ५ वी और ९वी के साथ अपने अगले भाव पर भी दृष्टी रखते हैं
भावो के स्थिर करक
सूर्य लग्न, धर्म और कर्म भाव का करक hai
चन्द्र...सुख bhav का / मंगल पुरषार्थ और शत्रु भाव का कारक है/ बुद्ध सुख और कर्म बहव का/ गुरु ...धन, पुत्र, धर्म, कर्म और आय भाव का / शुक्र ..स्त्री भाव का तथा शनि ..शत्रु, मृत्यु , कर्म और व्यय भाव का स्वामी है ......
"शुभ सुप्रभात"
ॐ गनेशाम्बा गुरुभ्यो नम:
भावो के स्थिर कारक गृह ...
सूर्य....लग्न, धर्म, कर्म का (ix & x) ka
चन्द्र...सुख (iv) का
मंगल ..सहज (iii) कौर शत्रु (vi) का
बुद्ध....सुख और कर्म भाव का...
गुरु....धन (ii) पुत्र (v) धर्म, कर्म और आय (xi) का
शुक्र....स्त्री भाव (vii) का
शनि .......मृत्यु (viii) कर्म (x) और व्यय (xii) का
आत्मदी चर कारक.....
सुर्यादी नव ग्रहों में जो सबसे अधिक अंश वाला गृह ...आत्म कारक, उससे कम अंश वाला...अमात्य कारक, उससे कम अंश वाला...भ्रात्र कारक ...उससे कम...मात्र कारक....उससे कम....पितृ कारक ...उससे कम पुत्र कारक....उससे कम जाति कारक
यदि गृह सूर्य का साथ हो तो अस्त, मंगल आदि पुरुष गृह चन्द्र का साथ हो तो समागम और मंगल के साथ एनी गृह हो तो युद्ध कहलाता है...उत्तरायण में सूर्य और चन्द्र दोनों बलि होते हैं शेष गृह समागम और वक्री (regrotted) होने से बलि होते हैं
सूर्य....के नेत्र शहद की भांति पिंगल वर्ण के हैं इसके शारीर की लम्बाई चौरे बराबर है..यह अधिक पित्त वाला और सर पर थोड़े बालो वाला होता है..तथा मृत्युलोक का अधिपति होता है जन्म के समय इसकी स्थिति के अनुरूप जातक की देह, पिता, पराक्रम , आशक्ति, और धन का विचार किया जाता है...शारीर में हड्डी और आत्मा का स्वामी है.....................शेष कल
ॐ श्री सद गुरुदेवाये नम:
ॐ गं गणपतये नम:
ग्रहों का अंग विन्यास
प्रश्न कल, गोचर अथवा जन्म समय में जब कोई गृह प्रतिकूल फलदाता होता है तो वह कालपुरुष के उसी अंग में अपने अशुभ फल के कारन पीड़ा पहुचाहता है
सूर्य का ....सर और मुख
चन्द्र का....हृदय और कंठ
मंगल का....पेट और पीठ
बुद्ध का...हाथों और पावो पर
गुरु का .........बस्ती par
शुक्र का..........गुप्त स्थान पर
शनि का........जन्घो पर
ॐ श्री सद गुरुदेवाये नम:
ॐ गं गणपतये नम:
ग्रहों के सम्बन्ध..
दो ग्रहों में परस्पर राशी परिवर्तन का योग हो- अर्थात 'क' गृह..ख गृह की राशी में बैठा हो ख गृह क गृह की राशी में बैठा हो -तो यह सम्बन्ध अति उत्तम सम्बन्ध होता है
जब दो गृह परस्पर एक-दुसरे को देख रहे हो तो यह सम्बन्ध बनता है -यह मध्यम सम्बध मन जाता है ...
दोनों ग्रहों में से एक गृह दुसरे गृह की राशी में बैठा हो और दोनों में से एक दुसरे गृह को देखता हो यह तीसरा सम्बन्ध मन जाता है
जब दोनों गृह एक ही राशी में बैठे हो तो एश चौथे प्रकार का सम्बन्ध होता है....
तब दो गृह एक-दुसरे से त्रिकोण भाव में (5th और 9th भाव में ) बैठे हो तो ये सम्बन्ध उत्तम सम्बन्ध मन जाता है ...मतलब कोई भी गृह जिस भाव में बैठा हो उस से पांचवे या नवे भाव में जोग्रह बैठा हो उसका सम्बन्ध त्रिकोण सम्बन्ध कहलाता है .....
ग्रहों की दृष्टि .....
जो प्रभावकारी दृष्टि हैं वे इस प्रकार हैं ...
प्रत्येक गृह अपने से सातवे भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है
गुरु जहां बैठा हो वहां से ५वी ७वी ९ वी दृष्टि से देखता है
शनि ३री ७वी १० वी दृष्टि से देखता है
मंगल ४थी ७वी और १० वी दृष्टि से देखता है
रहू और केतु की दृष्टि ३ री ७ वी ५ वी और ९वी के साथ अपने अगले भाव पर भी दृष्टी रखते हैं
भावो के स्थिर करक
सूर्य लग्न, धर्म और कर्म भाव का करक hai
चन्द्र...सुख bhav का / मंगल पुरषार्थ और शत्रु भाव का कारक है/ बुद्ध सुख और कर्म बहव का/ गुरु ...धन, पुत्र, धर्म, कर्म और आय भाव का / शुक्र ..स्त्री भाव का तथा शनि ..शत्रु, मृत्यु , कर्म और व्यय भाव का स्वामी है ......
"शुभ सुप्रभात"
ॐ गनेशाम्बा गुरुभ्यो नम:
भावो के स्थिर कारक गृह ...
सूर्य....लग्न, धर्म, कर्म का (ix & x) ka
चन्द्र...सुख (iv) का
मंगल ..सहज (iii) कौर शत्रु (vi) का
बुद्ध....सुख और कर्म भाव का...
गुरु....धन (ii) पुत्र (v) धर्म, कर्म और आय (xi) का
शुक्र....स्त्री भाव (vii) का
शनि .......मृत्यु (viii) कर्म (x) और व्यय (xii) का
आत्मदी चर कारक.....
सुर्यादी नव ग्रहों में जो सबसे अधिक अंश वाला गृह ...आत्म कारक, उससे कम अंश वाला...अमात्य कारक, उससे कम अंश वाला...भ्रात्र कारक ...उससे कम...मात्र कारक....उससे कम....पितृ कारक ...उससे कम पुत्र कारक....उससे कम जाति कारक
यदि गृह सूर्य का साथ हो तो अस्त, मंगल आदि पुरुष गृह चन्द्र का साथ हो तो समागम और मंगल के साथ एनी गृह हो तो युद्ध कहलाता है...उत्तरायण में सूर्य और चन्द्र दोनों बलि होते हैं शेष गृह समागम और वक्री (regrotted) होने से बलि होते हैं
सूर्य....के नेत्र शहद की भांति पिंगल वर्ण के हैं इसके शारीर की लम्बाई चौरे बराबर है..यह अधिक पित्त वाला और सर पर थोड़े बालो वाला होता है..तथा मृत्युलोक का अधिपति होता है जन्म के समय इसकी स्थिति के अनुरूप जातक की देह, पिता, पराक्रम , आशक्ति, और धन का विचार किया जाता है...शारीर में हड्डी और आत्मा का स्वामी है.....................शेष कल
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