इतिहास पढ़ें तो मुस्लिमों के भारत का शासक बनने के समय और बाद तक की स्थिति के बारे मे पता चलता है कि जब सल्तनत काल की नींव पड़ी उससे काफी पहले ही भारत से बौद्ध और जैन धर्मस्थल और साहित्य नष्टप्राय हो चुके थे, हां हिंदू धार्मिक साहित्य यानी चारों वेद, उपनिषद, रामायण के अनेक संस्करण, महाभारत, और अनेकों पुराण आदि प्रचुर मात्रा मे उपलब्ध थे , और अनेकों हिन्दू मन्दिर देश भर मे मौजूद थे जिन मन्दिरो और धार्मिक साहित्य को मुस्लिम चाहते तो नष्ट कर के अपने धर्म "इस्लाम" के प्रचार का मार्ग प्रशस्त कर सकते थे ... पर मुस्लिमों के उत्तर भारत मे पहले शासक यानि मोहम्मद गौरी के समय से ही मुस्लिम शासकों ने सर्वधर्म समभाव की नीति अपनाई थी और गौरी ने अपने सिक्को पर हिन्दू देवी लक्ष्मी की आकृति उकेरवाई थी
मुस्लिमों ने किसी गैरधर्म की पवित्र पुस्तकों को नष्ट किया हो ऐसा कहीं लिखा नहीं मिलता उल्टे इन्हीं मुसलमानों ने दूसरे धर्म (हिन्दू धर्म, क्योंकि बौद्ध साहित्य उस समय भारत मे न के बराबर उपलब्ध था ) की धार्मिक किताबों का विदेशी भाषाओं (फारसी तुर्की आदि) मे अनुवाद कर के भारतीय धर्म के प्रचार प्रसार मे सहयोग ही किया ...
मुगलकाल मे ही महाभारत का तुर्की और फारसी मे नकीब खान और बदायूंनी द्वारा अनुवाद किया गया, बदायूंनी ने रामायण का भी फारसी मे अनुवाद किया
हरिवंश पुराण का मौलाना शेरी ने, भगवद् गीता का दारा शिकोह ने, राज तरंगिणी का मुल्ला शेख मुहम्मद ने अनुवाद किया ... इसके अतिरिक्त सिंहासन बत्तीसी, नल दमयंती, पंचतन्त्र और लीलावती का भी तुर्की फारसी आदि मे मुगलकाल मे ही अनुवाद किया गया जिन्होंने विदेशों मे भारतीय संस्कृति का विज्ञापन करने का काम किया था ॥
दूसरी ओर इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस, और मीराबाई व सूरदास ने कृष्ण भक्ति के पद मुगलकाल व मुस्लिम शासकों के शासन के भीतर ही लिखे, जिनका धार्मिक तानाशाही के दौर मे लिखे जाना और सुरक्षित रह जाना बिल्कुल असम्भव था,...
मुस्लिमों ने किसी गैरधर्म की पवित्र पुस्तकों को नष्ट किया हो ऐसा कहीं लिखा नहीं मिलता उल्टे इन्हीं मुसलमानों ने दूसरे धर्म (हिन्दू धर्म, क्योंकि बौद्ध साहित्य उस समय भारत मे न के बराबर उपलब्ध था ) की धार्मिक किताबों का विदेशी भाषाओं (फारसी तुर्की आदि) मे अनुवाद कर के भारतीय धर्म के प्रचार प्रसार मे सहयोग ही किया ...
मुगलकाल मे ही महाभारत का तुर्की और फारसी मे नकीब खान और बदायूंनी द्वारा अनुवाद किया गया, बदायूंनी ने रामायण का भी फारसी मे अनुवाद किया
हरिवंश पुराण का मौलाना शेरी ने, भगवद् गीता का दारा शिकोह ने, राज तरंगिणी का मुल्ला शेख मुहम्मद ने अनुवाद किया ... इसके अतिरिक्त सिंहासन बत्तीसी, नल दमयंती, पंचतन्त्र और लीलावती का भी तुर्की फारसी आदि मे मुगलकाल मे ही अनुवाद किया गया जिन्होंने विदेशों मे भारतीय संस्कृति का विज्ञापन करने का काम किया था ॥
दूसरी ओर इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस, और मीराबाई व सूरदास ने कृष्ण भक्ति के पद मुगलकाल व मुस्लिम शासकों के शासन के भीतर ही लिखे, जिनका धार्मिक तानाशाही के दौर मे लिखे जाना और सुरक्षित रह जाना बिल्कुल असम्भव था,...
फिर मुस्लिमों के आने से पहले के अनेकों मन्दिर जैसे कैलाश मन्दिर, खजुराहो के मन्दिर, कोणार्क का सूर्य मन्दिर, भुवनेश्वर का लिंगराज मन्दिर, पुरी के जगन्नाथ मन्दिर आदि जैसे अनेकों मन्दिर आज भी सुरक्षित मिलते हैं यदि मुस्लिम मन्दिर तोड़ने ही भारत आए थे तो इन्हें तोड़ा क्यों नहीं .... बल्कि इतिहास तो ये बताता है कि उत्तर भारत के तीर्थ नगरों मे सर्वाधिक मन्दिरो का निर्माण तो मुस्लिम शासकों के सहयोग से ही हुआ .... यानी जिन्हें मन्दिर तोड़ने वाला प्रचारित किया गया है उन्होंने ही मन्दिर बनवाए थे
..... इसलिए मुस्लिम अपने धर्म का प्रचार और अन्य धर्मों का दमन करने की मानसिकता से भरे हुए थे मुझे इन आरोपों मे सच्चाई कम और साजिश ज्यादा नजर आती है...
..... इसलिए मुस्लिम अपने धर्म का प्रचार और अन्य धर्मों का दमन करने की मानसिकता से भरे हुए थे मुझे इन आरोपों मे सच्चाई कम और साजिश ज्यादा नजर आती है...
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